गुरुदेव सत्संग
प्रभु पथ
ईश्वर से प्रीति लगाना ही अंतिम सत्य है क्योंकि संसार में मनुष्य के जीवन भर के किये को मौत आकर बिगाड़ देती है।
मनुष्य माता के गर्भ में नौ मॉस रहकर गर्भ यातना सहकर संसार में आता है। जन्म के समय उसके दांत भी नहीं होते, खाने के लिए भी वह पराश्रित होता है। बोलने के लिए वाणी भी उसके पास नहीं होती, गिरते पड़ते वह खड़ा होना सीखता है। फिर विद्यालय जाता है वहां और भी बहुत से बालक होते हैं। अभी ये मनुष्य छोटी अवस्था के हैं।
आज ये विद्यालयों में हैं, कल बाजारों में होंगे और परसों शमशानों में . . . . . यही होता आ रहा है, यही हो रहा है और आगे भी होता रहेगा। संसार की इस गति को समझो और ईश्वर भक्ति के पथ पर चल कर अपना मनुष्य जन्म सफल कर लो, लेकिन जैसे ही तुम प्रभु-पथ पर अपने कदम रखोगे संसारी तिलमिला उठेंगे। सबके माथे ठनक जायेंगे। कई तो दौड़ पड़ेंगे पीछे खींचने के लिए। प्रभु पथ पर चलने वाले संत को हजारों प्रणाम करने वाले लोग भी नासमझ जोकर साधक को विचलित करने लगते हैं। लेकिन अब कोई कितना भी खींचे, कितना भी रोके साधक सावधान होता है, अब वह ध्रुव, तुलसी और महावीर की तरह तटस्थ होता है। जिन्हें भगवान् प्रिय नहीं वे साधक को प्रिय नहीं लगते और भगवान् के लिए साधक सबको त्यागता है। और जो संसार में बुरे मार्ग पर चले जाते है अथवा जिनकी असमय में मृत्यु हो जाती है उनके लिए कोई क्या कर सकता है ? और इन दुनियावालों को अपनी दुर्गति का बोध नहीं और ये दुसरे की सद्गति में बाधक बनते हैं। इन्हें स्वयं का ज्ञान नहीं और दूसरों के मार्गदर्शक बनना चाहते हैं।
पल-पल जल रही है, दुःख में पल रही है।
खुद तो भटक रही है दूसरों को रास्ता दिखा रही है।
ये निपट नकली लोग हैं न खुद कुछ शाश्वत प्राप्त करते हैं न किसी के परम्पथ के सहायक बनते हैं।
पूरा जीवन माया के पीछे दौड़ते हैं और आखिरी में दहते हैं राम नाम सत्य है। जब जिन्दा था और कह रहा था कि राम नाम सत्य है तब तो उसको दुखी कर रहे थे। तू ये क्या कर रहा है ? इससे क्या होगा ? और अब तब संसार से चल दिया तो कहते है राम नाम सत्य है।
अब इस सत्य को वह कैसे जाने ? अब ये उसके किस काम का ? और यदि कोई पूछे कि राम नाम सत्य है बोल रहे हो तो तुम क्यों नहीं राम का नाम लेते तब कहेंगे कि संसार नहीं छूटता। या फिर कहेंगे कि यदि सभी भक्ति करने लगे तो संसार कैसे चलेगा? लेकिन इनकी ये सभी बातें निरथर्क और निराधार हैं। ये लोग दो कौड़ी के संसार को मूल्यवान समझ रहे हैं। ईश्वर का इन्होंने कोई मूल्य नहीं समझा। इनके लिए जीवन से मूल्यवान माया है। भले ही उस माया से जीवन का एक पल भी न ख़रीदा जा सकता हो। कई बार लोग बाते करते है की हमने यह जमीन एक करोड़ रुपये में खरीदी थी, आज बीस साल बाद बीस करोड़ की हो गयी। लेकिन क्या जिंदगी के जो बीस साल चले गए वो बीस करोड़ देने से मिल जायेगे? बीस साल तो क्या बीस मिनिट भी नहीं मिल सकते, तो धन नहीं जीवन मूल्यवान है। ये मत देखो कि भाव कितना बढ गया, ये देखो कि जीवन कितना घट गया और प्रतिपल घट रहा है। फिर भी दौड़ रहे हैं। हर दिन मौत दिख रही है। परिवार में, पड़ोस में, अखबार में, समाचार में प्रतिपल मौत देख रहे है।
मौत है पीछे मौत है आगे चाहे कोई कितना भागे।
लेकिन फिर भी समझ नहीं आता कि हम भी एक दिन मर जाएंगे। लगे है खोखे इकट्ठा करने में और ये शरीर रूपी खोखा जिस दिन खाली हुआ, उस दिन ये खोखे दल कौड़ी के भी नहीं बचेंगे।
संसार में ये चार बाते सत्य हैं, पहली पूरा सुखी कोई नहीं, दूसरी सदा कोई रहता नहीं, तीसरी कुछ भी साथ जाता नहीं, और चौथी सब कुछ देकर भी एक सांस खरीद सकते नहीं। इसलिए संसार की परायी मजदूरी छोड़ कर मन भक्ति में लगाओ। यह तो समझो कि –
चली जा रही है उमर धीरे-धीरे,
सुबह-शाम और दोपहर धीरे-धीरे।
बचपन भी बीता जवानी भी बीती,
बुढापे का होगा असर धीरे-धीरे।।
और फिर एक दिन संसार से जाना पड़ेगा।
फिर तो मरते देर नहीं होगी और अर्थी पर शरीर को रस्सियों से बाँधा जायेगा जिस शरीर का बहुत अभिमान था और संत समझते थे कि –
तेरे जैसे लाखो आये] लाखो इस माटी ने खाए।
रहा न नाम-निशान] झूठी तेरी शान बन्दे। मत कर तू अभिमान।
उस शरीर में इतनी ताकत नहीं होगी की अंगुली भी हिला सके। सारा दिन जो आदमी मोबाइल लिए फिरता था, अब कितनी भी घंटियाँ बजे, उससे क्या ? अब कौन उठाएगा, कौन जवाब देगा ? कल तक जो सोच रहा था कि दुनिया मै ही चला रहा हूँ] आज उसमे पैर उठाने की भी ताकत नहीं। फिर श्मशान की तरफ सब लोग अर्थी को लेकर चल देंगे।
जब तेरी अर्थी निकाली जाएगी]
बिना मोहरत के उठा ली जाएगी।
जिंदगी किराये का घर है, एक दिन बदलना पड़ेगा ।
या जमी पर कब्र बनेगी, या चिता में जलना पड़ेगा ।।
और अर्थी को उठा कर श्मशान की ओर चलते हुए लोग अर्थी पर पैसे फेकेगे ये बताने के लिए की जिस पैसे को तूने बहुत महत्व दे रखा था उसका कोई मूल्य नहीं।
फिर वहाँ अग्नि देने के बाद कोई पीछे मुड़ कर भी नहीं देखेगा।
धूल में पैदा हुए और धूल में मिल जायेंगे
और
कितना कमाया साथ कुछ नहीं आया।
साथ आये भी कैसे ? कफ़न में जेब भी तो नहीं होती। संसार में मनुष्य जब जन्मता है तब जो पहला कपड़ा पहनता है उसमें भी जेब नहीं होती और जो आखरी कपड़ा पहनता है उसमें भी जेब नहीं होती फिर भी जीवन भर जेब भरने में लगा रहता है। जो कमाया वो न तो साथ आया न ही काम आया।
मिट्टी की काया जिस दिन मिट्टी में समाएगी]
न सोना काम आएगा, न चांदी काम आएगी।
और जो जीवन भर तेरा-मेरा करते रहे. वो सब व्यर्थ हो जायेगा। अब यहाँ –
न कुछ तेरा-कुछ मेरा, मर गए तो नया सवेरा।
अर्थी जब बाजार से चलेगी, लोग काँधे बदल-बदल कर आगे बढने लगेंगे।
इतने दिन जी रहे थे, कपड़े बदल-बदल कर,
अब लोग ले जा रहे हैं काँधे बदल-बदल कर।
जिन्होंने जीवन में कई बार काटा] कई बार चाटा। फिर भी जिन सम्बन्धियों का मोह मन में बसा रहा वो भी काम नहीं आये] लेकर चल पड़े। कईयों को मरते देखा लेकिन कभी यह विचार नहीं किया कि मैं भी एक दिन मर जाऊँगा? कईयों को खाली हाथ जाते देखा लेकिन ये नहीं सोचा कि मैं साथ क्या लेकर जाऊँगा? जीवन भर जुआ खेलते रहे।
जुआ खेल पूँजी हारी, अब जलने की हुई तैयारी।
श्मशान तक तो सब साथ चलकर आते हैं लेकिन आगे कोई भी साथ नहीं जाता। इसलिए वहाँ मरने वाले की आत्मा कहती है मुझे यहाँ तक लाने वालों का धन्यवाद, आगे तो मई अकेला ही चला जाऊंगा।
लोगों ने लाकर लकड़ियों पर रख दिया। शरीर पर लाकर लकड़ियाँ रखने लगे। और कुछ ही देर में शरीर को अग्नि के सुपुर्द कर दिया। अब कोई किसी का नहीं।
चिता की आग में तेरा जब तन-बदन जल जायेगा,
तब न बाप बेटे का होगा, न बेटा बाप का होगा।
न मस्जिद की मिनां होगी, न मंदिर का पता होगा,
रहेगा मालिक का, बाकि सब ही फ़ना होगा।
बड़े-बड़े सुरमा भी चिता की अग्नि में खाक हुए। अग्नि ने बड़े-बड़ों की ऐसी राख बनाई जो बर्तन साफ़ करने के काम भी नहीं आई और दूसरों के हाथों नदी में पहुंचाई। यह संसार नकली नोट है।
इसका परमेश्वर के यहाँ कोई मूल्य नहीं। असली नोट तो सत्संग, सेवा, भक्ति और अभ्यास है। वो जीवन में कमाया नहीं। कबीरजी कहते हैं –
क्या लेकर जन्म लिया है, क्या लेकर जाओगे,
मुट्ठी बांधे जन्म लिया है, हाथ पसारे जाओगे।
यह तन है कागज की पुड़िया, बूंद पड़े गल जाओगे,
कहे कबीर सुनो भाई साधो, हरि नाम बिना पछताओगे।
लेकिन ये सत्य समझाए कौन, जन्म लेने के बाद से जो मिले, सब अज्ञानी, माता-पिता, भाई, मित्र, पड़ोसी। सबके भीतर तो अज्ञान भरा है। सत्य को जानने वाला कोई मिला नहीं। सत्य पाएँ तो कहाँ से, ज्ञान मिले तो कहाँ से ? भगवान् श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि –
उत्तिष्ठ्ग्रजाग्रत प्राप्यवरान निबोध्यत।
उठो, जागो और सद्गुरु की खोज करो वे ही तुम्हें सत्य का ज्ञान करावेंगे।
जो सद्गुरु समर्थ को पावे, जो चरणों में शीश नमावे।
जो बैठे सत्संग के माय धीरे-धीरे वो छूट जाये।
गुरु को कीजे दंडवत कोटि कोटि प्रणाम।
कबीर पारस सोना करे, गुरु करे आप समान।
एक सद्गुरु के सत्संग को छोड़कर बाकि सब भगवान से भटकाने की ही बातें हैं। कथाओं से लेकर तीर्थों तक और मनमाने उपायों से अनेक सम्प्रदायों तक सब भटकाव ही है, कोई भी साधन ऐसा नहीं जो जीव को चौरासी के बंधन से मुक्त करावे, केवल सद्गुरु के वचन ही तार सकते हैं। यदि सद्गुरु की कृपा हो तो जन्म-मरण का चक्र छूटा समझो, नहीं तो ……
आ के जाता रहा, जा के आता रहा,
यूँ ही चक्कर चौरासी के खाता रहा।
इसलिए कुछ देर मन में संसार का आना बंद रखो और सद्गुरु की महिमा को समझो। उनके दर्शन सत्संग का लाभ लो, उनके सान्निध्य में रहने से तुम्हें जीवन का मूल्य और उसकी संभाल कैसे करना इसका ज्ञान होगा। किसी पुण्योदय से मनुष्य जन्म रूपी हीरा मिला है। हीरा मिलना बड़ी बात नहीं है, हीरे को संभालना बड़ी बात है। इसलिए समय-समय पर सत्संग सुनो, धीरे-धीरे उनके आश्रित होते जाओ, उनके ज्ञान को जीते जाओ, एक दिन तुम्हें अपने में ही इश्वर का बोध हो जायेगा।
सद्गुरु बता देंगे कि –
जैसे तिल में तेल है और पत्थर में आग,
तेरा मालिक तुझमें है जाग सके तो जाग।
सद्गुरु तुम्हें आत्मे का ज्ञान करवा देंगे फिर मौत का भय सदा के लिए समाप्त हो जायेगा। क्योंकि जीते हुए भी वो नहीं जीता जो श्रीभगवान को नहीं जानता और मर कर भी वह नहीं मरते जो श्रीभगवान को जान लेता है। सद्गुरु तुम्हें सत्य दृष्टि प्रदान करेंगे। अब तक तुम अज्ञानियों की दृष्टि से इस संसार को देख रहे थे लेकिन अब ज्ञानियों की दृष्टि से देखोगे। तब तुम्हें पता चलेगा कि संसार नश्वर, निरर्थक और दु:खालय है, तुम्हें जो सत्य है वो दिखने लगेगा और फिर मन अभ्यास में लगने लगेगा। फिर आत्मे आनंद में, आनंद अनुभूति में और अनुभूति आत्मसाक्षात्कार में बदलने लगेगी।
कल तक जो मन संसार के झूठे और नश्वर पदार्थ मांग रहा था वो प्रभु का भक्त बन जायेगा। और कहेगा – हे भगवान् ! आप हैं करुणानिधान, रखते हो सारे जग का ध्यान। मेरे हृदय में आप सदा वास कीजिये, बनकर मेरे तन के प्राण। और तुम्हें धीरे-धीरे यह बोध होने लगेगा की जो सद्गुरु हैं, वे ही प्रभु हैं और जो उनके वचन हैं वे ही पथ हैं अर्थात सद्गुरु का मिलना ही सच्चे प्रभु-पथ की प्राप्ति है।
अंतिम क्षण तक जीवन को सार्थक करने का प्रयास करो।
सत्संग से परमानंद की प्राप्ति
सत्संग आत्म कल्याण हेतु सर्वोत्कृष्ट साधन है। यदि यही साध्य भी बन जाय, तो सच्चिदानंद स्वरुप परमात्मा का साक्षात्कार सहज ही हो सकता है। सर्वथा सत् का संग ही सत्संग है। जैसा संग, वैसा रंग। महाभारत के शांतिपर्व में इसकी समुचित विवेचना मिलती है। व्यक्ति संत, पापी अथवा चोर जिसकी सेवा या संग करता है, वैसा ही हो जाता है। अतः संगति विचारपूर्वक ही करना श्रेयस्कर होता है। सत्संग एक सतत् प्रक्रिया बन जाये, तो मानव सांसारिक बुराइयों से सहज ही बाख सकता है। इसकी महिमा इतनी अधिक है कि जो उसका सेवन करते हैं, वे परमानंद की प्राप्ति का असीम सुख उठाते हैं। सत्संग अन्त:करण की शुद्धि का मार्ग है। सांसारिक माया से निवृत्ति का यह सबसे सरल उपाय है। सत्संग जीवन की जटिलताओं की दावा है, सत्संग शांति एवं तुष्टि का दाता है।
इसे लोग, जो सत्संग श्रवण से ऊब का अनुभव करते हैं, वे जीवनभर इस परम्रस से अनभिज्ञ ही रहते हैं। सत्संग श्रवण की प्यास निरंतर बढती जाए तो भक्त को असीम सुख की प्राप्ति होती है। सत्संग की महिमा अपार है क्योंकि भगवान् शंकर भी सत्संग को सर्वश्रेष्ठ साधन बताते हैं। संतों के संग को ही संत्संग कहा जाता है, उनका संग करने वालों को भगवान् मिलते हैं।
कवि जयदेव ने गीत गोविन्द ग्रन्थ की रचना की। भगवान् श्रीजगन्नाथ उनसे गीत गोविन्द नित्य सुना करते थे। उन्हें यह अत्यंत प्रिय था। एक मालिन को भी बार-बार गीत गोविन्द सुनने से उसके कुछ पद याद हो गये। प्रतिदिन वह बाग़ में बैंगन तोड़ती जाती और गीत गोविन्द के पद गाती जाती। उसका गीत गाना ठाकुरजी को इतना प्रिय लगता कि वे मालिन के पीछे-पीछे दौड़ते चलते।
एक फिन जगन्नाथ मंदिर के पुजारी ने देखा कि ठाकुरजी को तो उसने नये सुन्दर वस्त्र पहनाये थे, किन्तु उनके वस्त्र तो फटे हैं। उन्होंने पूछा कि भगवान्, आपके वस्त्र मंदिर में रहते हुए फट कैसे गए ? ठाकुरजी बोले – अरे, बैंगन के काँटों में उलझ कर फट गए। पुजारी जी पूछा, आप वहां क्यों गए थे ?
ठाकुरजी बोले – मालिन गीत गोविन्द का पद गान कर रही थी, उसे सुनने गया था। पीछे-पीछे जा रहा था, वस्त्र वहीँ उलझ कर फट गया। अब विचार करें कि एक संत का संत का संग से उस मालिन को भगवान् मिले, यही सत्संग की महिमा है। सत्संग की महत्ता स्वयं समझी जा सकती है, ऐसा परम सुख और शांति अन्यत्र कहाँ संभव है ?
सत्संग हरी कृपा से ही मिलता है और उसके लिए संत पुरुष का मिलना भी आवश्यक है। विभीषण हनुमान जी से कहते हाँ की अब उन्हें श्रीराम के दर्शनों का विश्वास है क्योंकि संत हनुमान मिल गए।
सत्संग किसी धनिक की गोद में जाने जैसा है। धनिक की गोद में हिस्सा उसकी गोद में जाते ही मिल जाता है, वैसे ही संत, महात्माओं की वर्षों की साधना की कमाई में अपना भाग सत्संग की गोद में जाते ही मिल जाता है। सत्संग ऐसे दुर्लभ को सुलभ बना देता है। सांसारिक माया से निवृत्ति सत्संग से ही संभव है। इसलिए कहा गया है कि जैसे सूर्य सम्पूर्ण जगत को अपने प्रकाश से आलोकित कर देता है, वैसे ही सत्संग अंत:करण के अन्धकार को निवृत्त कर देता है।
भक्ति का सच्चा आनन्द
कहते हैं कि भक्ति ईश्वर प्राप्ति का सबसे सरल मार्ग है। यहाँ एक यह प्रश्न उठता है कि भक्ति है क्या प्रभु भक्ति कोई रहस्य नहीं है। यदि कोई मनुष्य शुद्ध मन से सर्वशक्तिमान ईश्वर की वंदना कर उनकी उपस्थिति को स्वीकार करे] तो यह भक्ति है। आवश्यक बात यह है की भक्ति में भावना भी जरुरी है। कोई भावुक मनुष्य ही ईश-भक्ति में डूब सकता है। दरअसल, भक्ति का मार्ग सबके लिए खुला है। ईश्वर ने सभी लोगों के लिए डी सामान राह बनाई है। अब यह इंसान पर निर्भर करता है की वह उनके द्वारा बताये गए रास्तों का अनुसरण करता है या नहीं। सच तो यह है की भक्ति के हृदय के झरने में की तरह बहती है। भक्ति में आत्मसमर्पण और श्रद्धा छिपी होती है।
भक्ति ही मानव जेवण का मुख्य कर्म है। भक्ति में शुद्धता होती है । भक्ति शब्द संस्कृत के भज् धातु से उत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है भजते रहना।
इसी मान्यता है कि ईश्वर ने ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की रचना की है। और तो और संसार की सभी सजीव और निर्जीव रचनाएँ उनके हाथों से ही हुई हैं।
इसलिए अपने कर्म तथा आचरण द्वारा उस परम सत्ता को अपने हृदय में जगह देना ही भक्ति है।
भक्ति के संबंध में भक्त प्रहलाद का यह कथन महत्वपूर्ण है – हे ईश्वर ! जिस प्रकार क्षुद्र जीवों को केवल भोजन तथा काम-वासना से लगाव होता है, उसी प्रकार मुझमें केवल आपके प्रति ही प्रेम उपजे, जो कभी समाप्त न हो। ऐसा माना जाता है कि मोक्ष या जीवन चक्र से मुक्ति ही मानव जीवन का श्रेष्ठ लक्ष्य है जिसको भक्ति से प्राप्त किया जाता है।
सभी धर्मग्रंथों में भक्ति का स्पष्ट वर्णन मिलता है। भक्ति ह्रदय के प्रेमभाव तथा आत्मज्ञान का प्रतिक है। भगवद गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को भक्ति की महत्ता के बारे में ज्ञान दिया है।
जिस प्रकार क्षुद्र जीवों को केवल भोजन तथा काम-वासना से लगाव होता है, उसी प्रकार मुझमें केवल आपके प्रति ही प्रेम उपजे, जो कभी समाप्त न हो। ऐसा माना जाता है कि मोक्ष या जीवन चक्र से मुक्ति ही मानव जीवन का श्रेष्ठ लक्ष्य है जिसको भक्ति से प्राप्त किया जाता है।
सभी धर्मग्रंथों में भक्ति का स्पष्ट वर्णन मिलता है। भक्ति ह्रदय के प्रेमभाव तथा आत्मज्ञान का प्रतिक है। भगवद गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को भक्ति की महत्ता के बारे में ज्ञान दिया है। श्रीकृष्ण के अनुसार, जिस मनुष्य के मन में अपनी कोई इच्छा नहीं है अजर जो केवल मोक्ष की कामना करता है, उसे परमपिता परमात्मा का ध्यान करना चाहिए, यानी उनकी भक्ति में ही डूब जाना चाहिए। महर्षि पतंजलि ने कहा है ईश्वर भक्ति एक ऐसी साधना है, जिसमें मनुष्य अपनी सभी इच्छाओं को त्याग कर ईश वंदना में लग जाता है। यानी अपना सारा जीवन ईश्वर के चरणों में समर्पित कर देता है। भक्ति से जुड़ने के बाद आपकी आत्मा को इसकी अनुभूति होने लगती है इसके बाद सभी तर्क-वितर्क पीछे छूटने लगते हैं। आप सुख-दुःख में अंतर करना भूल जाते हैं।
इसके अलावा, आपके शरीर की जटिलता होने लगती है। साथ ही साथ आपके मन का क्लेश मिटने लगता है और आपका चित्त शांत होने लगता है। वास्तव में, तभी आपको भक्ति के सच्चे आनंद की अनुभूति होती है।
श्री भगवन्नाम जप
श्री भगवन्नाम जप कलयुग में भगवद्प्राप्ति कराने वाला साधन है कलयुग में इसके अतिरिक्त अन्य साधनों का महत्व गौण मन गया है। श्री तुलसीदासजी कहते हैं – कलयुग केवल नाम आधार, जपत, जपत नर उतरे भावपारा। आगे कहते है – न कलि कर्म न भक्ति विवेकू, रामनाम अवलंबन ,एकु।। अर्थात कलयुग में एकमात्र अवलंबन श्रीभगवन्नाम स्मरण ही है। संत सुन्दरदास जी कहते है – हरिनाम निरंतर ध्याइये।। श्रीशुकदेवजी ने भी नामजप का भगवत में कई स्थानों पर महत्व कहा है। अतः इस साधन को जीवन का प्रधान अंग बना ले वही सच्चा साधक है और सतत भगवान् की याद बनी रहती है और नाम जप पूर्व से संचित पापों को भी भस्म कर देता है। श्रीभगवान का नाम जपने से दसों दिशाओं में मंगल होता है। कलयुग में सच्चा बुद्धिमान वही है जो भगवन्नाम जप रूप साधन को जीवन में आत्मसात कर लेता है। निश्चय ही वह कल्याण के पथ पर,मुक्ति के पथ पर, भागावाद्प्राप्ति के पथ पर अग्रसर हो गया जो नित्य प्रेम से श्रीभगवान नारायण का नाम स्मरण करने लगा है।
श्रीभगवन्नाम कीर्तन
कर्लौतत् हरिकीर्तनात्।। अर्थात जो फल सतयुग और त्रेतायुग में हजार वर्षों की तपस्या करने से प्राप्त होता था, वही फल कलयुग में प्रतिदिन श्रीभगवान के नाम संकीर्तन से प्राप्त हो जाता है। नाम संकीर्तन का महत्व इतना अधिक है की श्रीभगवान नारद जी से कहते है कि –
नाहं वसामि वैकुंठे, योगिनानां हृदये नवै।।
मद्भक्ता यत्र गायन्ती, तत्र तिष्ठामी नारद।।
अर्थात हे नारद ! न मैं वैकुण्ठ में रहता हूँ, न ही योगियों के ह्रदय में रहता हूँ। मेरे भक्त जहाँ मेरे नाम का उच्चारण करते हुए संकीर्तन करते हैं मैं उसी स्थान पर रहता हूँ।
कीर्तन कलयुग के दोषों का शमन करता है। माया के प्रभाव को शांत करता है। अतः भक्त को चाहिए कि वह अपने हृदय को भक्ति भाव से भज कर कीर्तन करे। खूब तन्मय होकर कीर्तन में लवलीन रहे। सब ओर से चित्त को समेत कर संकीर्तन का व्यसन करे।
लोभ पर विजय
धार्मिक कथाओं के अनुसार, सात ऋषिओ का एक समूह ब्रह्मलोक पर विजय प्राप्त करने की इच्छा से तीर्थस्थानों के भ्रमण के लिए निकल पड़ा। ठीक उसी समय भयानक अकाल पड़ गया। जनता एक-एक दाने के लिए मोहताज हो गयी। यहाँ तक कि सप्तऋषियों को भी उपवास करना पड़ा।
भ्रमण करते हुए ऋषिगण सौराष्ट्र पहुंचे। सौराष्ट्र के राजा वृषदर्भि बहुत ही नेक पुरुष थे, इसीलिए अपनी प्रजा के बीच वे काफी लोकप्रिय थे। वे निरंतर घूम-घूम कर लोगों के अभाव की पूर्ति करते रहते थे। एक दिन राजा ने सप्तऋषियों को अन्न की खोज में भटकते हुए देखा। उन्होंने सप्तऋषियों को साष्टांग प्रणाम किया और प्रार्थना की कि मुझसे दान अवश्य ग्रहण करें, मैं आपको दूध देने वाली गायें, अन्न, वस्त्र रत्न, स्वर्ण आदि देने के लिए तैयार हूँ। आप इस तरह कष्ट क्यों झेल रहे हैं ?
सप्तऋषियों उस उत्तर दिया, हमारे लिए राजा का दिया हुआ दान लेना निषिद्ध है। इसलिए आप बू वस्तुओं को किसी दुखी सुपात्र को दे दें।
यह कह कर ऋषिगण आगे बढ गए। राजा ने उन लोगों को दान देने का दूसरा मार्ग अपनाया। उन्होंने गूलर के फलों में स्वर्ण भरवा कर ऋषियों के मार्ग में बिखेर दिया। एक ऋषि को गूलर का फल मिला, जो काफी वजनदार था। इसलिए उन्होंने अन्य ऋषियों को सावधान करते हुए कहा, मैं इतना अल्प बुद्धि नहीं हूँ कि गूलर के फल में छिपाए हुए द्रव्य को परख न सकूँ। ये गूलर फल हम लोगों के लिए त्याज्य हैं।
इस प्रकार सातों ऋषि गूलर के फल को उसी प्रकार भूमि पर छोड़ कर आगे बढ गये। कुछ दूर आगे बढने पर शुनसख नामक एक व्यक्ति भी उन लोंगों के साथ यात्रा में शामिल हो गया। आगे जाने पर उन्हें एक बहुत बड़ा सरोवर मिला, जो कमल के फूलों से भरा हुआ था। ऋषियों उस कुछ कमल के फूलों को इकट्ठा किया। उन लोगों ने भोग लगाने के लिए जब कमलनाल लेना चाह,तब वहां एक भी कमलनाल नहीं था।
कमलनालों को किसने चुराया, यह प्रश्न था। सभी ऋषियों ने अपनी-अपनी निष्कलंकता के लिये शपथ खायी। जब शुनसख की बारी आई, तब उसने अपनी शपथ में कहा, जिस किसी व्यक्ति ने कमलनाल की चोरी की हो, वह दुर्बुद्धि ब्रह्मलोक को जाये। ऋषियों ने जान लिया कि इसीने चोरी की है। तब ऋषियों ने उससे पूछा की क्या तुमने चोरी की है। शुनसख ने स्वीकार कर लिया।
उसने कहा की आपके मुख से धर्म सम्बंधित बातें सुनने के लिए ही मैंने कमलनाल की चोरी की है। इसके बाद उन्होंने कहा की मैं इंद्र हूँ और आप लोगों को विमान पर बैठा कर ब्रह्मलोक ले जाने आया हूँ। आप लोगों ने लोभ पर विजय पाने के कारण अक्षय लोक पर विजय पा ली है। इंद्र ने बड़े सम्मान के साथ ऋषियों को विमान पर बैठा कर अक्षय लोक पहुँचाया।
इसलिए कहते हैं कि कभी भी लोभ नहीं करना चाहिए। लोभ न केवल सभी पाप की जड़ है, बल्कि यह ईश्वर प्राप्ति की राह में रोड़े भी अटकाता है।